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उ॒तो पि॒तृभ्यां॑ प्र॒विदानु॒ घोषं॑ म॒हो म॒हद्भ्या॑मनयन्त शू॒षम्। उ॒क्षा ह॒ यत्र॒ परि॒ धान॑म॒क्तोरनु॒ स्वं धाम॑ जरि॒तुर्व॒वक्ष॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uto pitṛbhyām pravidānu ghoṣam maho mahadbhyām anayanta śūṣam | ukṣā ha yatra pari dhānam aktor anu svaṁ dhāma jaritur vavakṣa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒तो इति॑। पि॒तृऽभ्या॑म्। प्र॒ऽविदा॑। अनु॑। घोष॑म्। म॒हः। म॒हत्ऽभ्या॑म्। अ॒न॒य॒न्त॒। शू॒षम्। उ॒क्षा। ह॒। यत्र॑। परि॑। धान॑म्। अ॒क्तोः। अनु॑। स्वम्। धाम॑। ज॒रि॒तुः। व॒वक्ष॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:7» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचारी लोग (महद्भ्याम्) पूज्य अध्यापक उपदेशकों से (महः) बड़े ब्रह्मचर्य्य को (उतो) और (पितृभ्याम्) माता-पिता के साथ (प्रविदा) प्रकृष्ट ज्ञान से (घोषम्) विद्याशिक्षायुक्त वाणी और (शूषम्) बल को (अनु, अनयन्त) अनुकूल प्राप्त हों (यत्र) जहाँ (उक्षा) सेवन करनेवाला सूर्य्य (अक्तोः) रात्रि के (परि, धानम्) सब ओर से धारण को (जरितुः) स्तुतिकर्ता के (ह) ही (स्वम्, धाम) अपने स्थान को अर्थात् प्राप्त अवस्था को (अनु, ववक्ष) पहुँचाता है उसका सत्कार करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचारी लोग पिता, आचार्य्य आदि महान् पुरुषों के सेवन से विद्यातेज को पाते हैं, वैसे तुम लोग प्रातःकाल ईश्वर की स्तुति आदि से धर्म से हुए सुख को प्राप्त होओ ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या ये ब्रह्मचारिणो महद्भ्यां मह उतो पितृभ्यां प्रविदा घोषं शूषं चान्वनयन्त यत्रोक्षाऽक्तोः परि धानं जरितुर्ह स्वं धामानु ववक्ष तान् यूयं सत्कुरुत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) अपि (पितृभ्याम्) जनकजननीभ्याम् (प्रविदा) प्रकृष्टविज्ञानेन (अनु) (घोषम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्। घोष इति वाङ्ना०। निघं०१। ११। (महः) महत् (महद्भ्याम्) पूज्याभ्याम् (अनयन्त) प्राप्नुयुः (शूषम्) बलम् (उक्षा) सेचकः (ह) खलु (यत्र) (परि) (धानम्) धारणम् (अक्तोः) रात्रेः (अनु) (स्वम्) स्वकीयम् (धाम) (जरितुः) स्तावकस्य (ववक्ष) वहति। अत्र वर्त्तमाने लिटि वाच्छन्दसीति सुडागमः ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यथा ब्रह्मचारिणः पित्राचार्य्यादिमहतां सेवनेन ब्रह्मवर्चसमाप्नुवन्ति तथा यूयं प्रातरीश्वरस्तुत्यादिना धर्मसुखमाप्नुत ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसे ब्रह्मचारी लोक पिता, आचार्य इत्यादी महान पुरुषांचा अंगीकार करून विद्या व तेज प्राप्त करतात तसे तुम्ही लोक प्रातःकाळी ईश्वराची स्तुती इत्यादी करून धर्माने सुख प्राप्त करा. ॥ ६ ॥